एक दिन बोला बापूजी ने,
आसमां के तारों को कोई नहीं गिन सकता,
मैं रोज रात को गिनना शुरु कर देती.
और भटक जाती तारों के ही बीच में,
हर नये दिन फिर गिनना शुरु कर देती.
मैंने कहा बापूजी से
एक दिन इन तारों को जरूर गिन लूंगी,
बचपन का जोश था आत्मविश्वास भी कम न था.
जिन्दगी के अमूल्यक्षण गंवा दिये, तारों को गिनने में,
तारे तो गिन न पाई, पर वक्त गुजरने का गम कम न था.
एक दिन बोली स्वयं से
क्यों बापूजी ने ये मुश्किल काम मुझे पकडाया,
आज उत्तर भी मिल गया स्वयं से.
मेरे जिद्दीपन को वे शायद जानते थे,
इसी के सहारे वे आशायें जगाना चाहते थे मुझ से,
आज कहना चाहती हूँ बापूजी से
बचपन का वो विश्वास वापिस जगा दो मुझमें,
जितना भी वक्त शेष रहा, व्यर्थ न गवाँऊ इसको.
तारे तो गिन न पाई पर बहुत कुछ कर सकती हूँ मैं,
अपने ‘सूरज’ की रोशनी तेज कर दूँ, विश्वास दो मुझको.
संतोष शर्मा ‘संतु’
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