Thursday, December 30, 2010

आँखो का पानी

दर्पण की आँखो का पानी भी रीत गया
इस दर्द की बस्ती में क्या खो कर पाया
जैसे हम आये थे वैसे ही जाना है
विश्वास थके, हारे, कालापन जीत गया.
      भूला बिसराया सा, पथ में खोया, छूटा
      जुडने को टूटा था, जुड कर ही मन टूटा
      जैसे तो अधरों से मनचाहा गीत गाया
      जितना जो समय मिला यों ही बीत गया.
हम भूल गये जिसको, वह अनबोला क्षण था
आलिंगन के क्षण में उन बाहों का ऋण था
भीतर जो बजता था मधुरिम संगीत गया
दर्पण की आँखो का पानी भी रीत गया.

Friday, December 24, 2010

भावनाएँ

इंसान मजबूर है भावनाओं में बहने के लिये,
क्यों वह उदास है कुछ पलों के लिये.

क्यों कभी कुछ कमी खटकती है, बेवजह,
उस रिक्तता के अहसास की, क्या है वजह.

जरुरी तो नही उसको सम्पूर्णता ही मिले,
ऐसा भी हो सकता है, उसे अपूर्णता ही मिले.

पर उस अपूर्णता की कुछ तो है वजह,
हो सकता है सम्पूर्णता ही है वो वजह.

होते हैं उपेक्षित भी तो दिन में सितारे,
पर अंधेरा होने पर खिल उठते है ये सितारे.

क्या फूल हँसना छोद दें मुरझाने के डर से?
क्या फूल खिलना बंद कर दे टूट जाने के डर से?

खिल उठेगें सितारे, अंधेरा होने पर
इंसान भी खिल उठेगा, अवसर आने पर.

                   संतोष शर्मा संतु

जीवन के पल

कुछ पल खुशी के इंसान के पास,
आगे और पीछे यादों की आस.
पलपल व सोचे आगे की बातें,
आशा निराशा किताबी हिसाब.

जब भी मिला गम हँसते रहे,
जल्दी- जल्दी हम चलते रहे.
जीवन छोटी सी चादर सा है,

खींचो उधर तो इधर फिरन है.

जितना भी चाहो बढाना इसे,
पल पल रिस कर पाना इसे.
कुछ ही लम्हो में गुजर जायेगा,
यादों का बन्धन सिरक जायेगा.
ऐसी कहानी बनावो अभी,
मिटकर भी जीवन पावो तभी.


Thursday, December 23, 2010

बापूजी (मेरे नानाजी)

एक दिन बोला बापूजी ने,
आसमां के तारों को कोई नहीं गिन सकता,
मैं रोज रात को गिनना शुरु कर देती.
और भटक जाती तारों के ही बीच में,
हर नये दिन फिर गिनना शुरु कर देती.

मैंने कहा बापूजी से
एक दिन इन तारों को जरूर गिन लूंगी,
बचपन का जोश था आत्मविश्वास भी कम न था.
जिन्दगी के अमूल्यक्षण गंवा दिये, तारों को गिनने में,
तारे तो गिन न पाई, पर वक्त गुजरने का गम कम न था.
एक दिन बोली स्वयं से
क्यों बापूजी ने ये मुश्किल काम मुझे पकडाया,
आज उत्तर भी मिल गया स्वयं से.
मेरे जिद्दीपन को वे शायद जानते थे,
इसी के सहारे वे आशायें जगाना चाहते थे मुझ से,

आज कहना चाहती हूँ बापूजी से
बचपन का वो विश्वास वापिस जगा दो मुझमें,
जितना भी वक्त शेष रहा, व्यर्थ न गवाँऊ इसको.
तारे तो गिन न पाई पर बहुत कुछ कर सकती हूँ मैं,
अपने सूरज की रोशनी तेज कर दूँ, विश्वास दो मुझको.
                                 संतोष शर्मा संतु

Saturday, December 11, 2010

सब कुछ


मांगने पर मिला नहीं
बिन मांगे मिल गया सब कुछ
तुम्हे चाहिये या नहीं
फिर भी तुम्हे लेना है सब कुछ
चिंता न करो इन सब की
इन्ही से मिलेगा तुम्हे सब कुछ
 यह तुम हो संतु
तुम्हे पाना होगा सब कुछ

 संतोष शर्मा संतु

 

महिला दिवस

सुना है आज महिला दिवस है,
महिलाओं को जागरुक होने का दिन है
परंतु महिला तो एक अबुझ पहेली है
हर दिवस उसका एक समर्पित दिन है.

किसने जाना है नारी के रूप को,
वह तो ईश्वर की एक अनुपम कृति है
इस जग की निर्मात्री है वो
वह तो स्वयं में एक प्रकृति है. 
उसकी विभिन्नता की मिसाल कहाँ,
इस जग में है उसके रूप अनेक,
जहाँ वह देवी है, वहाँ चण्डिका भी,
बदल सकती है वह रूप प्रत्येक.
सदियों से हर दिवस उसके पास आया है
हर दिवस को उसने समझा है
हर दुर्बलताओं का प्रत्युतर उसने दिया
जिसने भी गलत उसको समझा है


संतोष शर्मा संतु

आशा –निराशा


कभी कभी मैं सोचती हूँ,
ये आशा और निराशा किस चिडिया का नाम है,
जहाँ एक तमन्नाएँ लेकत उडती है,
तो दूसरी गर्त के किले की ओर.
कभी-कभी मैं सोचती हूँ
इन चिडियों को कैद कर लूँ,
बन्धन में बाँध लूँ, इस आशा और निराशा को,
और पंख काट डालूं इन दोनों के.
फिर कभी-कभी मैं सोचती हूँ
क्या गलती है इन दोनों की
दोनों का ही है यह मुक्त गगन,
क्यों न मैं ही उड चलूँ इन दोनों के संग.
फिर मैं स्वयं को समझाती हूँ,
अगर ना होती यें दोनों चिडिया,
इंसानियत की उडान भराता कौन
इंसान होने का महत्व समझाता कौन,

संतोष शर्मा संतु


Thursday, December 2, 2010

आतंक


आतंक

दहशत अहसास है आतंक का
हैवानियत की हदें पार होती है,
मासूमों की हत्याओं से
लक्ष्य पूरे किये जाते हैं.
ऊँची अट्टालिकाओं में होते हैं अपराध
और खून बिखरता है सड़कों पर,
माँ के आँचल से दूर होते लालों से
लक्ष्य पूरे किये जाते हैं.
आतंक के साये से इंसानियत भयभीत है
और पनाह देना किसी को, गुनाह है,
प्रेम और भाईचारे की बलिवेदी पर
लक्ष्य पूरे किये जाते हैं.
क्या ये बम और बन्दूक की गोलियां
अस्तित्व मिटा देगी धरती का
क्या मानवीयता थरथरा उठेगी?
और आतंक का लक्ष्य पूर्ण होगा?
नहीं कमजोर नहीं है मानव,
जैसे को तैसे की भावना से विनाश का
अहसास है उसे,
जब तक मानव है, मानवीयता भी रहेगी
अभी भी रक्त के लाल होने का
अहसास है उसे.
                        संतोष शर्मा,
 (अहमदाबाद में बलास्ट के दिन रचित)