Saturday, April 8, 2017

नहीं कहूँगा...

कभी कभी लगता है व्यर्थ ही
कर रही हूँ अपने प्यार पर
अभिमान..
शायद ये सब किताबों में
ही होता है
मै पागल सब कुछ न्योछावर
करती रही
यहाँ तक कि "सब कुछ'
तुम्हारे आज के कुछ शब्द
गूंज रहे है मेरे कानो में
"नहीं कहूँगा'
अंदर तक लोहा पिघल गया
आदर्शो की बलि देना
मैंने भी कभी नहीं चाहा था
पर ये दुःख तो हम दोनों का
एक था..

No comments:

Post a Comment